उद्धरेदात्मनात्मान्न नात्मानमवसादयेत.
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः
(गीता ६,५)
आप ही अपना उद्दार करना होगा. सब कोई
आपे आप को उबारे. सभी विषयों में स्वाधीनता ,
यानि मुक्ति की ओर अग्रसर होना ही पुरुषार्थ है.
जिससे और लोग दैहिक, मानसिक और आध्यात्मिक,
स्वाधीनता की ओर अग्रसर हो सकें, उसमें सहायता देना
और स्वयं भी उसी तरफ बढ़ना ही परम पुरुषार्थ है.
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